एक संत का एक शिष्य था। वह रोज उनसे प्रश्न करता कि गुरुदेव !
मुझे कुछ ऐसा ज्ञान दें, जिसका उपयोग मैं जीवनभर कर सकूँ। उसके प्रतिदिन प्रश्न करने पर भी संत ने उसको कोई उत्तर नहीं दिया।
आखिरकार एक दिन थककर वह संत से बोला- “गुरुदेव! आप मुझे कोई शिक्षा दे ही दीजिए या मुझे कहीं और जाने दीजिए।”
इस बार संत बोले – ” अच्छा, तुझे जाना ही है तो नगर में सुवंत नामक व्यापारी रहता है, उसके पास जा।
वह जो सिखाए, वह सीखकर आना।” शिष्य बे-मन से उसके पास गया, रास्ते में सोचता रहा कि जो मैं इतने बड़े संत से नहीं सीख पाया, वो एक व्यापारी से कैसे सीख पाऊँगा ? पर गुरुआज्ञा मानकर वह व्यापारी के पास पहुँचा और तीन दिन में ही वापस लौट आया।
वापस लौटकर वह संत -से बोला – “गुरुदेव! आपने भी मुझे कहाँ भेज दिया। वह व्यापारी तो सुबह पाँच बजे से बरतन साफ -करता है और रात दस बजे तक माँजता ही रहता है। ज्ञान की एक भी बात नहीं करता है।”
संत बोले – “बेटा ! यही सीखने तो तुझे भेजा था। जैसे बरतन को रोज माँजने की आवश्यकता होती है, वैसे ही मन को नित्यप्रति साफ रखने की आवश्यकता है। यदि यह साफ रहेगा तो मन में ज्ञान स्वतः ही उतर आएगा।” आत्मपरिष्कार ही आत्मज्ञान का एकमात्र माध्यम है।